अगरोट के खोखे

अगरोट के खोखे...
"खोखा" को जानने के लिए मारवाड़ी भाषा का ज्ञान होना जरूरी है वरना वो यही समझेंगे की मैं "खो-खो" खेल के बारे में बात कर रहा हूँ। राजस्थान में रहकर अगर किसी ने "खोखा" नही खाया तो समझलो कि उसने अब तक झक मारी है। वैसे राजस्थानी भाषा में "खोखा खाने"  का मतलब भी झक मारना ही होता है लेकिन मैं नही मानता इस मुहावरे को! बल्कि मैं तो ये कहूँगा की खोखा और सूखे बोर (झड़का के) ये मारवाड़ के "ड्राई फ्रूट्स" है।
आज भी जब राजस्थान आता हुँ  तो "सालासर" से ये दो ड्राई फ्रूट्स लाना नही भूलता। काजू,बादाम, अखरोट,पिस्ता झक मारते हैं अगर किसी ने बचपन में ये खाये हो तो।  मैं ये भी जानता हूं कि आजकल की जनरेशन सबके सामने खोखे खाना अपनी शान के खिलाफ मानते हैं लेकिन छुप छुपकर जरूर खाते हैं।
खोखा और वो भी "अगरोट" के!  वाह वाह... क्या स्वाद है ..।
खोखो का भी मौसम होता हैं एक महीने तक का! और जो खेजड़ी पर खुद पक कर सूखते है वो ही ज्यादा स्वादिष्ट होते हैं। इसमें भी ध्यान रखना पड़ता कि वो भैरूजी के खेजड़े के तो नही है? वरना उल्टी होने लगती है।

हाँ तो अब बात पर आता हूँ- केराप स्कूल में पढ़ते वक्त मेरे दोस्त मुरारी का स्नेह मुझ पर कुछ ज्यादा ही था और आज भी है। अब भी कभी  2-3 साल में हम मिलते है तो दोनों, बातें कम और बचपन की बातों में ज्यादा खोये रहते हैं। वो अगरोट से स्कूल आता तो स्कूल बैग में मेरे लिए "खोखो के मौसम" में खोखा जरूर लाता था।  कभी कबार गोविन्दराम, मदनपुरी भी लाते थे।
रेसीस में (लंच) हम सब मिलकर खोखा खाते और कुछ जेबों में भी डाल लेते थे, क्लास में गुरुजी से नज़र बचा कर बीच बीच मे खोखे खाने का लुफ़्त उठाते रहते थे।
मेरा दूर का भाई भगवान हालांकि वो मुझसे 2साल बड़े है फिर भी मेरी क्लास में ही पढ़ते थे। गहरी दोस्ती थी या ये कहूँ वो मेरे बॉडी गार्ड थे। किसीकी भी हिम्मत नही होती उनके और मंगला राम के रहते हमारे ग्रुप से लड़ने की। वैसे लड़ते नही थे फिर भी बचपने में 1-2दिन में छोटा मोटा वाक्या हो ही जाता था। दामू और छगन हमारे ग्रुप के मास्टरमाइंड हुआ करते थे। खैर... छोड़ो... फिर भटक गया बात में...!

हाँ तो एक दिन खोखा कुछ ज्यादा ही स्वादिष्ट थे। मुरारी बोला कि अगरोट के पास एक खेत है, वहाँ से लाया हूं आज। भगवान बोला कि इतने मीठे?? चलो आज तो उस खेत पर धावा बोलेंगे और खोखे खाकर ही आएंगे।
गर्मियों के दिन थे और स्कूल टाइम 7 से 2 बजे तक था उस वक्त।  मुरारी, मदनपुरी, गोविन्दराम के साथ 3-4 हम केराप वाले छुट्टी होते ही निकल गए खोखे खाने। पहले मुरारी अपने घर ले गया और खाना भी खिलाया सबको, उसके बाद निकल गए खोखो पर धावा बोलने।
सच मे उस खेत की खजड़ियों पर मस्त खोखे लगे थे। मोटे मोटे, हरे भी और सूखे भी। भगवान और महावीर खेजड़ी पर चढ़ने में उस्ताद थे। पहले भी हम गूंद खाने के लिए बहुत बार गए थे खेतों में। कितनी भी सीधी खेजड़ी तो... ये सेकिंडो में चढ़ जाते थे।

मुरारी घर से आते वक्त एक पछेवड़ी (सफेद चादर) लेकर आया था हम सब खेजड़ी के नीचे बिछाकर छाया में बैठ गए थे जैसे अपने बाप का ही खेत है और ये दोनों ऊपर से खोखे गिरा रहे थे। ऐसा आनन्द आ रहा था जैसे आम के बगीचे में आम खा रहे हो। मस्त माहौल बना हुआ था।
तभी हमारे कानों में दूर से एक कर्णभेदी कर्कश आवाज सुनाई दी। सब हैरान की ये रंग में भंग कौन डाल रहा है।

मुरारी खड़ा होकर देखकर बोला - अरे यार! ये तो खेत का मालिक है.. बहुत खतरनाक आदमी है.. हाथ में डांग भी है, पकड़े गये तो बहुत बुरी तरह मारेगा। हम अगरोट की तरफ भागते हैं और तुम सब केराप की तरफ भागो।
इतना सुनते ही भगवान और महावीर करीबन 15 फिट ऊंचे पेड़ से कूदे और भागने लगे। पीछे पीछे खेत का मालिक डांग (लाठी) हाथ में लिए और आगे आगे हम जुते हाथ में लिए।
बिना किसी प्रतियोगिता के ही हम एक दूसरे को पीछे छोड़ने में लगे थे। जहाँ जाने में हमें आधा पोन घंटा लगा था , आने में मुश्किल से 10 मिनिट। पुरखाराम जी के कुऐ तक हमारी दौड़ आड़े खेतों में ही चलती रही। उस दिन मुझे मालूम पड़ा कि मैं इतना तेज दौड़ सकता हूँ वो भी उस लू भरी गर्मी में।
पीछे मुड़कर देखकर तस्सली हुई की वो अब नही आ रहा है तो हम सब भण्डारी- मामडोदा क्रॉस पर एक बालू रेत का टीला हुआ करता था... वहाँ आराम फरमाने लगे। लेकिन वहाँ एक हादसा और हो गया??
मालूम नही कहाँ से हरिपाल सिंह जी मा.साब का उधर से गुजरना हुआ और उनकी नज़रों में हम आ गये। उस वक्त अगर कोई गुरुजी गाँव से निकलते थे तो बच्चे यहाँ वहाँ छूप जाया करते थे लेकिन हम सब टिल्ले के ऊपर ऐसी जगह पर थे कि दूर से ही दिखाई दे रहे थे।
दूसरे दिन प्रार्थना होते ही गुरुजी ने हम सबको खड़ा कर दिया कि कल उस टीले पर क्या करने गए थे? सब मौन! क्या बहाना ले? हमारी सांकल की कमजोर कड़ी महावीर से पूछे तो उसने डरते हुए कह दिया कि-  मा.साब हम दौड़ने की प्रेक्टिस कर रहे थे।  फिर क्या था, स्कूल के पीछे वाले खेत मे 10 चक्कर लगाने पड़े सबको।
लेकिन उस दिन दौड़ के कारण एक फायदा जरूर हुआ हमको।
स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में मेहरामा राम फर्स्ट और मैं सेकंड आया और भगवान लंबी कूद में, महावीर ऊंची कूद में पहले नंबर पर रहे।
मेरी इस आपबीती में एक दो नाम की भूल रह सकती है लेकिन ये वाक्या बिल्कुल सत्य है। हो सके तो कभी मुरारी से  पूछ लेना।( हालांकि अब वो बड़े ऑफिसर बन चुके हैं इसलिए मुरारीलाल जी कहना चाहिए लेकिन मेरे लिए वो प्यारा मुरारी ही रहेगा) ।।

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